एक तेजस्वी सहपाठी आत्म-आनंद में लिप्त होती है, उसकी उंगलियां उसकी गीली, तंग सिलवटों की खोज करती हैं। जब वह कुशलता से अपनी योनि को चरमोत्कर्ष तक छेड़ती है, तो उसकी कराहें उसके छात्रावास में भर जाती हैं। असंतुष्ट, वह और अधिक चाहती है, अपने हाथ को गहराई से आग्रह करती है, परम परमानंद की तलाश करती है।